Sunday, May 28, 2023

 महाब्राह्मण*: एक समीक्षा

श्री त्रिलोक नाथ पांडेय जी द्वारा रचित उपन्यास *महाब्राह्मण* ‌पढ़ा, अत्यंत सामयिक और विचारोत्तेजक लगा। विषय-वस्तु बिल्कुल अनछुआ है - महाब्राह्मण, महापात्र, कंटहवा आदि विभिन्न नामों से पुकारी जाने वाली जाति। कहने को तो यह जाति ब्राह्मणों में महान और पात्रता में महान है, लेकिन इसकी आर्थिक, शैक्षणिक, बौद्धिक एवं सामाजिक स्थिति दलितों से भी ज्यादा दयनीय और अछूतों से भी अधिक अश्यपृश्य है क्योंकि इन्हें अशौच और अशुभ भी माना जाता है - साक्षात चण्डाल मृत्यु की तरह।यह उत्तर प्रदेश के एक पिछड़े गांव के दो पीढ़ियों की कहानी है।
कहानी शुरु होती हैं नायक, राम नारायण मिश्र, के सुसाइड नोट से और फिर कहानी फ़्लैश बैक में उसके नोटबुक से चलती है।
असली कहानी की शुरुआत नायक के कालेज-जीवन से होती है, काफ़ी सरस एवं सुखद प्रसंगों से परिपूर्ण । अंजलि से नायक के प्रेम प्रसंगों का छायावादी शैली में इतना सुन्दर चित्रण है कि पाठक बरबस अपने कालेज के दिनों में चला जाता है। जयदेव के 'गीत गोविंद' और महान ओडिसी नर्तक राम चरण महापात्र की भावभीनी प्रस्तुति के माध्यम से लेखक ने शृंगार रस की ऐसी उत्पत्ति की है कि नायिका ही क्यों, पाठक भी उसमें अवगाहन करने लगता है। अन्त में इस अफलातूनी आदर्शवादी प्यार की स्वाभाविक परिणति दैहिक प्यार में हो जाती है।
'महाब्राह्मण' कहानी के ३३वें पृष्ठ पर तब उभरता है जब नायक की जाति के विषय में अंजलि के पिता शुक्ला जी को पता चलता है। फिर तो भूचाल आ जाता है, जाति प्रथा की जड़ता, विद्रूपता एवं भयावहता शुक्ला जी के सारे मानवीय गुणों को जलाकर भस्म कर देती हैं। उनका शिष्ट और संभ्रांत व्यवहार जाति प्रथा के एक झोंके में रेत की दीवार की तरह भड़भड़ा कर गिर गये। और, बचता है नायक की पीड़ा तथा त्रासदी जो उसे विक्षिप्तता के कागार पर ला खड़ा करती है।
नायक के गांव का इतना सजीव चित्रण है कि गांव का पूरा परिदृश्य सामने आ जाता है और उसके पात्रों में आपके अपने गांव के चिरपरिचित चेहरे नजर आते हैं - जातियों में बुरी तरह बंटा गांव, गवांई राजनीति, जातिगत जोड़-तोड़, पाखण्डों की बेड़ी में जकड़ा गांव, अर्थहीन कर्मकांडों के भ्रमजाल में चरमराता गांव, गरीबी और अशिक्षा के कूप में आकंठ डूबा गांव! जो महाब्राह्मण सबको अपने कर्मकांड से प्रेत योनि से मुक्ति दिलाता है, वह खुद अपनी आर्थिक एवं सामाजिक मुक्ति का रास्ता नहीं ढूंढ पाता है! गांवई जीवन की यौन स्वेच्छाचार ,जो खुला रहस्य की तरह सर्वविदित होता है और इसमें भी आर्थिक शोषण की प्रधानता होती है, का बार बार उल्लेख आता है ।
नायक का संघर्षपूर्ण जीवन तब शुरु होता है जब शुक्ला जी उसे अपने घर से भगा देते हैं नायक की जाती के विषय में जानने के बाद। किन्तु, एक छोटा सा नखलिस्तान फिर नज़र आता है जब नायक की मुलाकात राकेश पाण्डेय से होती है जो उन्हें आई.पी.एस बनने में भरपूर मदद करता है और जिसके लिए जाति का बन्धन कोई मायने नहीं रखता।
आई.पी.एस बनने और एडीजी दीक्षित की बिगड़ैल पुत्री से शादी करने के बाद नायक के जीवन में पुनः दु:खों की ज्वालामुखी फट पड़ती है। उसकी जाति पुनः उसके सामने राक्षस की तरह मुंह बाए खड़ा हो जाता है - बिल्कुल मार्मिक चित्रण ! जीवन के इस कश्मकश और मरांतक वेदना को असह्य पाकर नायक आत्महत्या कर लेता है और कहानी का पटाक्षेप हो जाता है‌।

लेखक ने इस कहानी के साथ अपने आप को इस तरह आत्मसात कर लिया है और भौगोलिक तथा गांव का परिदृश्य इतना परिचित रखा है कि बहुत बार आभास होता है कि यह उपन्यास लेखक की आत्मकथा ही है। यही लेखक की सबसे बड़ी उपलब्धि है।

इस तरह एक आदर्शवादी दु:खान्त कहानी है यह। लेखक चाहते तो इसे सुखांत भी बना सकते थे इस संघर्ष में नायक को विजयी बनाकर या अपनी पत्नी के सहयोग से संघर्ष को जारी रखकर। लेकिन इस में यथार्थ मर जाता क्योंकि आज भी अनेकों दलित -शोषित वर्ग के नवयुवक का अन्त ऐसे ही हो रहा है।
यह एक संघर्ष है प्रगतिशील एवं प्रतिक्रियावादी शक्तियों के बीच का - एक समाज में सकारात्मक बदलाव के लिए लड़ रही है तो दूसरी सामाजिक संरचना में बदलाव का विरोध कर रही है
अपनी परम्परा तथा शास्त्रों की दुहाई देकर। यह लड़ाई सदियों से लड़ी जा रही है और सदियों तक जारी रहेगी।
इसलिए लेखक ने यह पाठकों पर छोड़ दिया है कि वही सोचें कि क्या सही होता, क्या नहीं।
मेरी राय में आत्महत्या नायक के चरित्र की कमजोरी को उजागर करता है और उसके खण्डित व्यक्तित्व को भी। जो व्यक्ति मानस बल में इतना मजबूत है कि अपने यूपीएससी के साक्षात्कार में बिल्कुल निर्भिक और बेबाकी से साक्षात्कार बोर्ड के निदेशक को बताता है कि उसके पिता एक डकैत थे और मां पुलिस वालों के बलात्कार का शिकार, वही व्यक्ति सामाजिक अन्याय और क्रूरता के सामने घुटने टेक देता है!

दूसरी बात, सुसाइड नोट को प्रस्तावना की तरह कहानी शुरु होने से पहले ही देना भी, एक बहस का विषय हो सकता है। इससे कहानी की शुरुआत से ही पाठक के मन में यह बैठा रहता है कि अंततः नायक तो मर ही जाता है। कहानी का अन्त शुरु से ही हतोत्साहित करता रहता है पाठक को।
भाषा के ख्याल से लेखक ने गंवाई शब्दों का खूब प्रयोग किया है जिससे कहानी की प्रमाणिकता को पुष्टि मिलती है। लगता है 'चुपवाने' जैसे कई शब्द लेखक ने खुद इजाद किए हैं, इससे हिन्दी भाषा को समृद्धि मिलेगी तथा इसे लोक भाषा बनाने में भी सहायता मिलेगी।

                                                     ************

Wednesday, March 8, 2023

Socrates on Happiness

 The link could be opened only after installing *sportify*.


It is a very good talk, a good conversation, indeed. Thank you very much.


It nicely and lucidly discussed the subject  'Happiness Lessons Of The Ancients: Socrates and Self Knowledge'. Dr Laurie's exposition of the subject gave various interesting information about what happiness is through the eyes of Socrates. He was a great philosopher and a polymath. He tried to arrive at truth through his famous method of *dialogue*.


What  exactly is  happiness? It is a very fascinating and complex question, attracting a great deal of attention of all eminent philosophers. But still the question is not finally answered. 


It is certainly not material. A man spending his life beside a dusty road in scorching heat is found laughing and enjoying, whereas another man living in a luxurious villa is sad and restless. 


Happiness is different for different persons because it depends on so many factors. Bhagat Singh derived happiness by going to noose, whereas many cowards were terrorised even in their well fortified houses.


Happiness depends upon knowledge, belief system, mindset, traditions ....... The base of philosophy and knowledge is scientific critical enquiries into everything around us - natural, social or personal. It was so dear and precious for Socrates that he gladly embraced death for upholding it. He was always in search of truth and valued it the most. He said 'there is only one good, knowledge, and one evil, ignorance'. 


One should always be open-minded and ready for paradigm shift in one's thinking to reach truth. After studying all the inventions of human civilisation Kuhn  in his highly influential landmark book, *The Structure of Scientific Revolutions*, shows how almost every significant breakthrough in the field of scientific endeavour is first a breakaway with traditions and old ways of thinking. But the society and the religion have always resisted any change. They have vested interests in maintaining  the status quo.


In our Indian society as elsewhere in regressive sections the scientific temperament is being blunted and questioning of traditional values, value system, belief, belief system, mindset and ways of thinking is condemned as anathema and even anti-nationalist. Our Indian spiritual leaders - rishis -  also held that *paramanand* lies in total and absolute surrender to *paramatma*. It leaves no space for further questioning. It emphasises that when we see *paramatma* everywhere and in everything, we find only *anand* in this creation. Is not possible for common and normal people.

A good share, thank you, bete!

(This was a comment on a video on *Happiness Lessons Of The Ancients: Socrates and Self Knowledge'* by Dr Laurie, shared by my daughter -in-kaw Rishika)

Sunday, September 27, 2020

Beyond traditions and civilization

Any breakthrough in great inventions and discoveries is a breakaway from the tradition.
We may be proud that while all other great ancient civilizations and their traditions have died away, our great ancient civilization and traditions are fully alive in continuity, but it may be a reason for our not excelling today in science and technology. We are not ready to shake off our bondage of past. We are strongly glued down to our ancient knowledge and still consider the Vedas as the ultimate source of all knowledge. We must rise above 'gobar and go-mutra'.
We should not blunt the scientific temperament and habit of making critical enquiries in our children by giving commandments like :
"Not even a blade of grass can move without the will of God, and so do not raise doubts on the events of the nature or try to know the reasons behind them, accept them as God's will.''
''Do not raise questions on the wisdom of elder people, it is not allowed in our civilization and tradition. Sanskari people do not do it."
This is not in the interest of any forward looking nation or society. So, without any consideration of our misplaced Sanskar and without any ego of being elder, being more intelligent or being wiser, let the inquisitiveness of the children flourish . Give them full freedom and respect to them to ask questions without any hesitations, even if they are uncomfortable or challenge our knowledge and wisdom. With change of time, knowledge, perception, outlook - every thing is changing so fast that we cannot live only with our past.
Nirmal Roop Singh, Taneja Deva Nand and 8 others
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Saturday, September 12, 2020

*चाणक्य के जासूस : एक समीक्षा*

 *चाणक्य के जासूस : एक समीक्षा*

अभी कल मैंने श्री त्रिलोक नाथ पांडेय रचित ऐतिहासिक उपन्यास *चाणक्य के जासूस* को पढ़ना पूरा किया है। यह उपन्यास धननंद के विशाल साम्राज्य के विध्वंस के लिए तैयारी से लेकर उसके पतन , चन्द्रगुप्त के राजतिलक के साथ मौर्य सम्राज्य की स्थापना और चन्द्रगुप्त को सबल बनाने की कहानी है। पूरी कहानी चाणक्य के इर्द-गिर्द घूमती है और वही इसके केन्द्रीय पात्र हैं । या यूं कहें कि सारे घटनाक्रम के रचयिता और सूत्रधार चाणक्य ही हैं। इस कालखंड के इतिहास और चाणक्य की अद्भूत जासूसी दुनिया का बहुत सुंदर वर्णन है इस उपन्यास में।
***
चाणक्य , जिसे कौटिल्य, विष्णुगुप्त और बाद में वात्स्यायन के नाम से भी जाना गया (३५० -२७५ ईसा पूर्व), का पात्र भी अजीब है, कुछ ऐतिहासिक तो अधिकांश बौद्ध, जैन एवं काश्मीरी परम्परा की किंवदंतियों तथा जनश्रुतियों पर आधारित। इनके जीवन के बारे में या मौर्य साम्राज्य (३२२- १८५ ईसा पूर्व) की संस्थापना में इनके योगदान के बारे में कोई दस्तावेज, आलेख या अन्य ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं हैं। किंवदंतियां भी एक दूसरे से मेल नहीं खातीं ।
सबसे पहले चाणक्य के विषय में जो किताब मिलती है वह है विशाखदत्त द्वारा रचित अर्द्ध ऐतिहासिक नाटक मुद्राराक्षस (४थी - ८वीं ई ) जो इतिहास और संस्कृत साहित्य के लिए एक धरोहर बन गया। फिर महत्वपूर्ण घटना घटी १९०५ में , जब कर्णाटक के एक संस्कृत विद्वान रुद्रपटन रामाशास्त्री ने चाणक्य द्वारा लिखित *अर्थशास्त्र* की पांडुलिपि को एक तमिल ब्राह्मण से प्राप्त किया , जिसका प्रकाशन मैसूर के एक पुस्तकालय की देखरेख में १९०९ ई. में हुआ। उसके बाद एक-दो जगह और भी इसकी पांडुलिपियां मिलीं। *अर्थशास्त्र* समाज शास्त्र एवं राजनीति शास्त्र के ऊपर बृहद निबंध है जिसमें श्लोकों के माध्यम से शासन कला, सार्वजनिक प्रशासन, शास्त्रीय अर्थशास्त्र, जासूसी जैसे सभी विषयों पर विस्तृत वर्णन है।
*अर्थशास्त्र* पढ़ने से लगता है कि चाणक्य, चार्वाक-दर्शन को मानने वाले थे जो शासनकला एवं राजप्रबंध तथा सामुहिक एवं राष्ट्रीय हित में नैतिकता से परे चालबाजी, धूर्तता, कपट नीति , छल, क्रूरता, कुटिलता, दुष्टता, आदि के प्रयोग का अनुमोदन करते थे। इसीलिए इनकी तुलना इनके समकालीन ४थी शताब्दी ईसा पूर्व के ग्रीक दार्शनिक सुकरात और अरस्तू (जो पश्चिमी सोच के नैतिक परम्परा के संस्थापक समझे जाते हैं) से न करके १५वीं शताब्दी के मैकियावेली, जिन्होने प्रिंस नामक किताब लिखकर अमरता प्राप्त की, से की जाती है। किन्तु, *अर्थशास्त्र* जहां प्रिंस की तरह ही क्रूरता, कुटिलता, चलाकी आदि को राष्ट्र और सामान्य जन के हितार्थ किए गए सामुहिक कार्य के लिए आवश्यक मानता है, वहीं यह प्रिंस से एक कदम और आगे दिखता है। *अर्थशास्त्र*जासूसी को एक मजबूत और व्यापक संस्था के रूप में स्थापित करने पर जोर देता है, जिसे यह आन्तरिक शान्ति, कानून व व्यवस्था तथा युद्ध और विदेश नीति के लिए अपरिहार्य मानता है। प्रिंस इस विषय में कुछ नहीं कहता।
***
ऐतिहासिक उपन्यास का लेखन एक दुरूह कार्य है क्योंकि इतिहास की सीमाओं में रहकर ही अपनी कल्पनाओं को उड़ान देना पड़ता है, इतिहास के तथ्यों से छेड़छाड़ भी न हो और कहानी को इतिहास की नीरसता से बचाकर रोचकता और कोमलता प्रदान की जाए। इतिहासकार तो घटनाओं तथा युद्ध की हार-जीत के चकाचौंध से प्रभावित रहता है, जबकि उपन्यासकार उससे आगे बढ़कर देश, समाज और व्यक्ति के जीवन के भीतर तक झांकता है।
यह सब आपको इस उपन्यास में स्पष्ट दिखेगा।
वैसे तो इस उपन्यास का चित्रफलक एक खास कालखण्ड और एक खास विषय-वस्तु है, किन्तु, कहानी में घटनाओं के साथ उस समय की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं अपराधिक परिस्थितियों का एक विस्तृत वर्णन है, जिससे उपन्यास का चित्रफलक काफी विस्तृत और समग्र हो जाता है।
कहानी का मूल विषय-वस्तु तो चाणक्य की जासूसी दुनिया है। यूं तो जासूसी मानव समाज में उसकी सभ्यता के उदय से ही विद्यमान है, किन्तु, चाणक्य ने इसे राजनीति तथा सैन्य रणनीति में उच्चतम शिखर पर ला दिया। जासूसी के समस्त विधाओं और पहलुओं को इतनी कलात्मक ढंग से इस कहानी में पिरोया गया है कि पाठक को पता ही नहीं चलता है कि वह कब राजनीति के प्रसस्त मार्गों से गुजरता हुआ गूह्य , गूढ़ और रोमांचक जासूसी की गलियों में आ धमकता है तथा अत्यन्त सरलता से उनके जीवन्त रूप से परिचित होता चला जाता है। जासूसी के तमाम पुरातन और अद्यतन कलाओं व तकनीकियों से परिचय मिलता है। कहानियां तथ्यों से भटकती भी नहीं हैं। इस तरह से यह उपन्यास काफी शोधपरक है एवं विषय वस्तु पर लेखक की निपुणता और अच्छी पकड़ का द्योतक है।
जासूसी की महत्ता और सफलता अपने चरम सीमा पर पहुंच जाती है जब चाणक्य ने अपने जासूसों के बल पर बिना किसी युद्ध के धननंद के विशाल साम्राज्य का रक्तहीन सत्ता पलट कर देता है। जासूसों ने मनोवैज्ञानिक ढंग से और उसके अन्त:पुर में घुसकर उसके ऊपर ऐसा मानसिक दबाव बनाया कि वह खुद ही राज भवन से पलायन के दरम्यान मर गया। जासूसी का क्रूररूप देखने को तब मिलता है, जब चन्द्रगुप्त को विषकन्या के द्वारा मारने का षड्यंत्र हुआ तो कुटिल चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को बचाने के लिए राजा पुरु, जो उनके लिए मित्रराष्ट्र के रुप में अपनी सेना लेकर लड़ने आया था, का बलिदान कर दिया।
कंचन और कामिनी तथा सुरा और सुन्दरी का प्रयोग जासूसी में होता आया है और चाणक्य ने भी खूब किया। चन्द्रगुप्त के शत्रुओं एवं प्रतिद्वंन्दिओं के नास करने के बाद चाणक्य सम्राज्य को निष्कंटक बनाने में लगे रहे, क्योंकि उन्हें पता था कि शत्रु पर विजय पा लेना ही प्रर्याप्त नहीं था, राज को निष्कंटक बनाये बिना सम्राज्य को शक्तिशाली एवं स्थाई नहीं बनाया जा सकता। फिर जासूसी-कला से चन्द्रगुप्त के दोनों प्रमुख दुश्मन, धननंद के महामात्य कात्यायन तथा राजा पुरु के पुत्र मलयकेतु, का हृदय परिवर्तनकर उन्हें राष्ट्र निर्माण में लगा दिया। यह चाणक्य के साम, दाम, दण्ड, भेद की नीति का उदाहरण है
लेखक की पकड़ समान रूप से हिन्दी, संस्कृत एवं आंग्ल भाषाओं पर है। साथ ही ये भारत सरकार के जासूसी विभाग में एक उच्च पद पर कार्यरत थे, जिससे विषय वस्तु के निष्पादन में पूरी तथ्यात्मकता रही है ।
यह कृति कई अर्थों में महत्त्वपूर्ण और अनोखी है। अत्यन्त ही पठनीय उपन्यास।
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Monday, July 9, 2018

Why social values are deteriorating among children

Why social values are deteriorating among children
Yes, why? 

1- This change has not happened abruptly, all of a sudden or overnight. It has happened gradually. If the present generation is to be blamed, we are also to be blamed because if they are not as obedient and well behaved as we were, then we were also not as obedient and well behaved as our preceding generation was. The change is due to the changing time i.e overall transformation in the the society in various fields. Even if we try our level best, we cannot keep ourselves or our children in a sanitized isolation. We can at best sensitize them.
2-Unlike the large joint family living in sprawling spaces in rural areas , we have now nucleus family and paucity of space in urban living. Children live in close proximity of their parents and hence the privacy of the parents from the children is largely compromised robing the deity-like aura of greatness of the parents in the eyes of the children. This is also a reason for lowering of regards of children for the parents/elders.
3- According to our shashtras an individual's conduct and behavior is governed by the satoguna, rajoguna or tamoguna (you may call them the genetic qualities in biological terms) he inherits from his past lives (ancestors).
4- Parents and family are the first school of children. Sanskar comes from them. The first onus of inculcating ethics and morals lies upon them, and then upon society and school. The ethics , moral and social values cannot be taught through books and verbal communication, they have to be imbued through deeds and practice of the elders whom the children emulate. Dishonest parents cannot teach their children to be honest. Children will treat such parents as hypocrite .
5- The morals cannot be taught with sticks either ie under the pressure of threat and terror. If a situation around our children prevails just opposite to what we want to teach them, they may revolt violently, if pressed hard. It is against the child psychology.
6- The best way is to handle them softly and delicately in a friendly manner. If we want the coming generation to have good conduct, behavior and social values, we will have to change ourselves. We may start from our home by setting good examples for children to follow. If his father beats or insults his mother, he cannot respect his sister and his own wife, least to talk about the woman folk in general.
7- There is one more problem as to what we want to teach our children. The perception about the morals and social values differ from man to man, group to group and society to society. We should emphasize on the social values which are based on universality without any differentiation on the basis of sex, caste, creed, colour, ethnicity and regionalism .
8- One caution! With the fast advancement of science and technology, today the children have comparatively more and better knowledge about the world. They have also developed a more scientific temperament and hence they are more inquisitive and make more critical inquiries about everything. The elders should not take it offensive, rather they should promote it. Our feudal outlook towards our children has already caused much damage to the inquisitive minds of the children.
🏃‍♂️🏃‍♀️💃🕺

Sunday, February 25, 2018

Where Do Ideas Come From

Raj,
Your question, "where do ideas come from ", leads us to a very vast territory of philosophy, both Indian and western. Philosophers belonging to various schools and camps of philosophy have dwelt upon this problem in depth and the debate is still going on, but they have failed to reach a unanimous conclusion. However, I attempt to summarize them very briefly here:
A. Hindu Philosophy: According to the Hindu philosophy, the human body is the rarest in the organic world called sattvika (as also in other religions and philosophies) and made up of 25 basic elements - 5 gross primordial elements (Panch Tatva), 5 subtle primordial elements (Tanmatras) 5 organs of perception (Gyanendriya), 5 organs of action (Karmendriya), mind (manas), reason (Buddhi), individuation (Ahankara), life force or vitality (chetan or pran) and Atma
There are several differences in the aforesaid categorisation among the 6 different schools of Hindu philosophy, especially the Kapil Sankhya philosophy and Vedantic philosophy as mentioned differently at different places in the Vedas, the Upnishadas, the Gita and the Mahabharata. The Gita generally quoted Sankhya.
Out of these constituents mind, reason and individuation are responsible for giving birth to ideas. However, some Rishis categorize mind and reason as different with reason being superior and beyond mind, whereas some other Rishis stress that they are the same and mind performs the dual function of mind and reason both.
When something is perceived by organ of perception, mind receives it, and after classifying, it sends to reason , which processes it to decide what is good and what is bad. In developing (making vyakaranam) anything the reason has often to conceive ideas (make sankalpam and vikalpam). The Gita also differentiate between two kinds of reason - pure reason and practical reason. ( German philosopher Immanuel Kant also says so and has devoted two books on it). The origin of ideas is pure reason. Hindu philosophy adds one more thing. It says that reason is a bodily faculty just like mind and so it can be sattviki , rajasi and tamasi according to previous actions, hereditary impressions, education, etc.

B. Western Philosophy :
It has four schools on this subject:
Rationalism -
1- philosophers like Plato explained that perception may be deceptive and hence is unreliable. Immutable and unchanging knowledge can be obtained only from pure reason, and not from perception. Thus ideas originate from pure reason. He talked about the world of ideas.
Cartesian (propounded by Descartes, a French philosopher) modified Plato's explanation by saying that a clear and distinct idea comes from pure reason accessible by pure reason. Human reason itself has capacity to generate a clear and distinct idea. The concept of the world of ideas is nonexistent.
2- Empiricism- the protagonists of this school explained that the source of true knowledge is not reason but experience. Newton's idea of gravitational force originated from his experience when an apple fell on him.
3- Kant theory - Immanuel Kant , German philosopher combined both the above theories of rationalism and empericism by claiming that a true idea comes from reason and arises only with experience
4- Pragmatism - By giving various examples they stressed that an idea is true till it is effective in producing benefits.
C.Scientific Explanation : The scientists and biologists do not agree that mind and reason (feeling of heart) have any independent or separate existence. So an idea also originates in mind. When a man experiences something through an organ of perception, mind recieves it, compare it with the large data already stored in mind through past experiences and comes to generate an idea. When an apple fell on Newton, mind received an experience. His mind tallied it with his past experiences and knowledge and thought that nothing goes to something else unless it is pushed or pulled. So the idea of gravitational pull came to his mind.
Conclusion: Being a student of science, I am more inclined to accept the scientific theory.

Thursday, October 15, 2015

Voice of hatred and intolerance being promoted against liberal voice

Voice of hatred and intolerance being promoted against liberal voice
Tactically the Muslims may support  Salman Rushdie joining the growing chorus of protests by writers and poets against spread of “communal poison” and “rising intolerance” in India. for the time being, but strategically he will continue to be the permanent enemy of both the Islamists and the Hindutvawadi because after all they both are two faces of the same coin. It is an unprecedented development with about 20 eminent litterateurs having already returned awards, but with no effect on the Govt or the aggressive Hindutvawadis. A Muslim was killed in Dadri and a riot/arson was engineered in Mainpuri by spreading a false rumour that a cow was killed by the Muslims. Eminent writers have been killed simply because they express liberal and progressive views, which are opposed to theirs,  The Pakistani artiste Ghulm Ali's concert in Mumbai and Pune had to be cancelled and  for organising a function for the Pakistani ex Foreign Minister's book Sudhir Kulkarni's face was blackened.The Govt should have immediately condemn these incidents and taken ster actins against the perpetrators of crimes, but, on the contrary , the Cultural Minister  held a veiled threat against the writers . This proves that there is a well planned  design/ conspiracy to attack on democratic and all the cultural and civilizational fabrics to shape them according to their own regressive concept/ interpretation/mindset with divisiveness , intolerance and hatred as its core . The recent killing of progressive writers shows that they believe in ' eliminate if someone does not agree with them'. Where are we heading for ?                                           Modi ji is a habitually talkative gentleman and  talks a lot on a number of topics, but he maintained a deafening silence. After 15 days when confronted with tremendous pressure from various sides, he broke his silence expressing his sadness on this issue, but trying to shift his responsibility to the state governments, saying the centre has no role in it. Firstly, the central Govt has enormous power through MHA. At least he as the PM, the highest executive position, should have immediately condemned the incidents. It would have gone a long way in quelling the situation and his ministers, MPs and MLA would not have indulged in provocative statements/activities. It would have sent a good and positive message to the nation, especially the minorities that the Govt was there to safeguard them, but he played the same tactics what he had played during Gujarat riots.
Either Modiji is unable to discipline his war -mongering cadres out of fear or under pressure from his supreme leader, or under a design he speaks of 'sabka sath sabka vikas' and his cadres are left free to pursue an aggressive divisive agenda. After the PM statement gave a statement to condemn these incidents, Sanjay Raut, Shiv Sena leader rightly described itby saying ' it is not a statement of  Narendra Modi ji, it is a statement of a PM'. Thus he differentiated between his two faces.
The Hindutva forces, who claim to be the sole custodian of nationalism and patriotism, are worried that such controversy over these incidents will tarnish the image of the nation and discourage the inflow of FDI into the country , adversely impacting the national development. They demand those raising voices against these incidents not to do so for the sake of national prestige. What a genuine concern for the nation and what a skewed argument! Who can be more worried for foreign investment than Modiji? Then why is he not telling his men not to pursue a politics/agenda of hatred and intolerance  for the sake of national development and national prestige? For sake of foreign investment and vikas such barbarous acts cannot be allowed. It is a very strange logic / argument that the perpetrators of crimes are not being asked not to indulge in disruptive and violent activities but the defenders are being asked not to raise voice against these violence as it would bring bad name to the country. This is exactly what is said in :' marenge bhi aur rone bhi nahi denge'. Do they consider the people and governments of other countries  as moron that if these incidents are not protested, they will go unnoticed.Obama,the USA President had already warned against such fratricidal tendencies- they are already aware of such dangers.
It is pertinent to underline here that extremism knows no limit. Today the Hindutva forces are fighting against the Muslims. Suppose they win and establish a Hindu state in India as Muslims have Islamic states in many countries. Their fight will not end there. Various sects of Hinduism - Vaishnavites, Shaivites, Shakts,etc- will fight among themselves for supremacy as they fought bloody battles in past and as the Sunnis, the Shias, the Talibans, the Al Quida, the ISIS, etc are fighting  fratricidal wars for supremacy in the middle east areas. Such fascist forces will also try to expand the territory of their influence , causing tention in the area. Hence these forces must be resisted. One must remember that not to raise voice against the crimes against humanity is also a crime