महाब्राह्मण*: एक समीक्षा
श्री त्रिलोक नाथ पांडेय जी द्वारा रचित उपन्यास *महाब्राह्मण* पढ़ा, अत्यंत सामयिक और विचारोत्तेजक लगा। विषय-वस्तु बिल्कुल अनछुआ है - महाब्राह्मण, महापात्र, कंटहवा आदि विभिन्न नामों से पुकारी जाने वाली जाति। कहने को तो यह जाति ब्राह्मणों में महान और पात्रता में महान है, लेकिन इसकी आर्थिक, शैक्षणिक, बौद्धिक एवं सामाजिक स्थिति दलितों से भी ज्यादा दयनीय और अछूतों से भी अधिक अश्यपृश्य है क्योंकि इन्हें अशौच और अशुभ भी माना जाता है - साक्षात चण्डाल मृत्यु की तरह।यह उत्तर प्रदेश के एक पिछड़े गांव के दो पीढ़ियों की कहानी है।कहानी शुरु होती हैं नायक, राम नारायण मिश्र, के सुसाइड नोट से और फिर कहानी फ़्लैश बैक में उसके नोटबुक से चलती है।
असली कहानी की शुरुआत नायक के कालेज-जीवन से होती है, काफ़ी सरस एवं सुखद प्रसंगों से परिपूर्ण । अंजलि से नायक के प्रेम प्रसंगों का छायावादी शैली में इतना सुन्दर चित्रण है कि पाठक बरबस अपने कालेज के दिनों में चला जाता है। जयदेव के 'गीत गोविंद' और महान ओडिसी नर्तक राम चरण महापात्र की भावभीनी प्रस्तुति के माध्यम से लेखक ने शृंगार रस की ऐसी उत्पत्ति की है कि नायिका ही क्यों, पाठक भी उसमें अवगाहन करने लगता है। अन्त में इस अफलातूनी आदर्शवादी प्यार की स्वाभाविक परिणति दैहिक प्यार में हो जाती है।
'महाब्राह्मण' कहानी के ३३वें पृष्ठ पर तब उभरता है जब नायक की जाति के विषय में अंजलि के पिता शुक्ला जी को पता चलता है। फिर तो भूचाल आ जाता है, जाति प्रथा की जड़ता, विद्रूपता एवं भयावहता शुक्ला जी के सारे मानवीय गुणों को जलाकर भस्म कर देती हैं। उनका शिष्ट और संभ्रांत व्यवहार जाति प्रथा के एक झोंके में रेत की दीवार की तरह भड़भड़ा कर गिर गये। और, बचता है नायक की पीड़ा तथा त्रासदी जो उसे विक्षिप्तता के कागार पर ला खड़ा करती है।
नायक के गांव का इतना सजीव चित्रण है कि गांव का पूरा परिदृश्य सामने आ जाता है और उसके पात्रों में आपके अपने गांव के चिरपरिचित चेहरे नजर आते हैं - जातियों में बुरी तरह बंटा गांव, गवांई राजनीति, जातिगत जोड़-तोड़, पाखण्डों की बेड़ी में जकड़ा गांव, अर्थहीन कर्मकांडों के भ्रमजाल में चरमराता गांव, गरीबी और अशिक्षा के कूप में आकंठ डूबा गांव! जो महाब्राह्मण सबको अपने कर्मकांड से प्रेत योनि से मुक्ति दिलाता है, वह खुद अपनी आर्थिक एवं सामाजिक मुक्ति का रास्ता नहीं ढूंढ पाता है! गांवई जीवन की यौन स्वेच्छाचार ,जो खुला रहस्य की तरह सर्वविदित होता है और इसमें भी आर्थिक शोषण की प्रधानता होती है, का बार बार उल्लेख आता है ।
नायक का संघर्षपूर्ण जीवन तब शुरु होता है जब शुक्ला जी उसे अपने घर से भगा देते हैं नायक की जाती के विषय में जानने के बाद। किन्तु, एक छोटा सा नखलिस्तान फिर नज़र आता है जब नायक की मुलाकात राकेश पाण्डेय से होती है जो उन्हें आई.पी.एस बनने में भरपूर मदद करता है और जिसके लिए जाति का बन्धन कोई मायने नहीं रखता।
आई.पी.एस बनने और एडीजी दीक्षित की बिगड़ैल पुत्री से शादी करने के बाद नायक के जीवन में पुनः दु:खों की ज्वालामुखी फट पड़ती है। उसकी जाति पुनः उसके सामने राक्षस की तरह मुंह बाए खड़ा हो जाता है - बिल्कुल मार्मिक चित्रण ! जीवन के इस कश्मकश और मरांतक वेदना को असह्य पाकर नायक आत्महत्या कर लेता है और कहानी का पटाक्षेप हो जाता है।
लेखक ने इस कहानी के साथ अपने आप को इस तरह आत्मसात कर लिया है और भौगोलिक तथा गांव का परिदृश्य इतना परिचित रखा है कि बहुत बार आभास होता है कि यह उपन्यास लेखक की आत्मकथा ही है। यही लेखक की सबसे बड़ी उपलब्धि है।
इस तरह एक आदर्शवादी दु:खान्त कहानी है यह। लेखक चाहते तो इसे सुखांत भी बना सकते थे इस संघर्ष में नायक को विजयी बनाकर या अपनी पत्नी के सहयोग से संघर्ष को जारी रखकर। लेकिन इस में यथार्थ मर जाता क्योंकि आज भी अनेकों दलित -शोषित वर्ग के नवयुवक का अन्त ऐसे ही हो रहा है।
यह एक संघर्ष है प्रगतिशील एवं प्रतिक्रियावादी शक्तियों के बीच का - एक समाज में सकारात्मक बदलाव के लिए लड़ रही है तो दूसरी सामाजिक संरचना में बदलाव का विरोध कर रही है
अपनी परम्परा तथा शास्त्रों की दुहाई देकर। यह लड़ाई सदियों से लड़ी जा रही है और सदियों तक जारी रहेगी।
इसलिए लेखक ने यह पाठकों पर छोड़ दिया है कि वही सोचें कि क्या सही होता, क्या नहीं।
मेरी राय में आत्महत्या नायक के चरित्र की कमजोरी को उजागर करता है और उसके खण्डित व्यक्तित्व को भी। जो व्यक्ति मानस बल में इतना मजबूत है कि अपने यूपीएससी के साक्षात्कार में बिल्कुल निर्भिक और बेबाकी से साक्षात्कार बोर्ड के निदेशक को बताता है कि उसके पिता एक डकैत थे और मां पुलिस वालों के बलात्कार का शिकार, वही व्यक्ति सामाजिक अन्याय और क्रूरता के सामने घुटने टेक देता है!
दूसरी बात, सुसाइड नोट को प्रस्तावना की तरह कहानी शुरु होने से पहले ही देना भी, एक बहस का विषय हो सकता है। इससे कहानी की शुरुआत से ही पाठक के मन में यह बैठा रहता है कि अंततः नायक तो मर ही जाता है। कहानी का अन्त शुरु से ही हतोत्साहित करता रहता है पाठक को।
भाषा के ख्याल से लेखक ने गंवाई शब्दों का खूब प्रयोग किया है जिससे कहानी की प्रमाणिकता को पुष्टि मिलती है। लगता है 'चुपवाने' जैसे कई शब्द लेखक ने खुद इजाद किए हैं, इससे हिन्दी भाषा को समृद्धि मिलेगी तथा इसे लोक भाषा बनाने में भी सहायता मिलेगी।