*चाणक्य के जासूस : एक समीक्षा*
अभी कल मैंने श्री त्रिलोक नाथ पांडेय रचित ऐतिहासिक उपन्यास *चाणक्य के जासूस* को पढ़ना पूरा किया है। यह उपन्यास धननंद के विशाल साम्राज्य के विध्वंस के लिए तैयारी से लेकर उसके पतन , चन्द्रगुप्त के राजतिलक के साथ मौर्य सम्राज्य की स्थापना और चन्द्रगुप्त को सबल बनाने की कहानी है। पूरी कहानी चाणक्य के इर्द-गिर्द घूमती है और वही इसके केन्द्रीय पात्र हैं । या यूं कहें कि सारे घटनाक्रम के रचयिता और सूत्रधार चाणक्य ही हैं। इस कालखंड के इतिहास और चाणक्य की अद्भूत जासूसी दुनिया का बहुत सुंदर वर्णन है इस उपन्यास में।
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चाणक्य , जिसे कौटिल्य, विष्णुगुप्त और बाद में वात्स्यायन के नाम से भी जाना गया (३५० -२७५ ईसा पूर्व), का पात्र भी अजीब है, कुछ ऐतिहासिक तो अधिकांश बौद्ध, जैन एवं काश्मीरी परम्परा की किंवदंतियों तथा जनश्रुतियों पर आधारित। इनके जीवन के बारे में या मौर्य साम्राज्य (३२२- १८५ ईसा पूर्व) की संस्थापना में इनके योगदान के बारे में कोई दस्तावेज, आलेख या अन्य ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं हैं। किंवदंतियां भी एक दूसरे से मेल नहीं खातीं ।
सबसे पहले चाणक्य के विषय में जो किताब मिलती है वह है विशाखदत्त द्वारा रचित अर्द्ध ऐतिहासिक नाटक मुद्राराक्षस (४थी - ८वीं ई ) जो इतिहास और संस्कृत साहित्य के लिए एक धरोहर बन गया। फिर महत्वपूर्ण घटना घटी १९०५ में , जब कर्णाटक के एक संस्कृत विद्वान रुद्रपटन रामाशास्त्री ने चाणक्य द्वारा लिखित *अर्थशास्त्र* की पांडुलिपि को एक तमिल ब्राह्मण से प्राप्त किया , जिसका प्रकाशन मैसूर के एक पुस्तकालय की देखरेख में १९०९ ई. में हुआ। उसके बाद एक-दो जगह और भी इसकी पांडुलिपियां मिलीं। *अर्थशास्त्र* समाज शास्त्र एवं राजनीति शास्त्र के ऊपर बृहद निबंध है जिसमें श्लोकों के माध्यम से शासन कला, सार्वजनिक प्रशासन, शास्त्रीय अर्थशास्त्र, जासूसी जैसे सभी विषयों पर विस्तृत वर्णन है।
*अर्थशास्त्र* पढ़ने से लगता है कि चाणक्य, चार्वाक-दर्शन को मानने वाले थे जो शासनकला एवं राजप्रबंध तथा सामुहिक एवं राष्ट्रीय हित में नैतिकता से परे चालबाजी, धूर्तता, कपट नीति , छल, क्रूरता, कुटिलता, दुष्टता, आदि के प्रयोग का अनुमोदन करते थे। इसीलिए इनकी तुलना इनके समकालीन ४थी शताब्दी ईसा पूर्व के ग्रीक दार्शनिक सुकरात और अरस्तू (जो पश्चिमी सोच के नैतिक परम्परा के संस्थापक समझे जाते हैं) से न करके १५वीं शताब्दी के मैकियावेली, जिन्होने प्रिंस नामक किताब लिखकर अमरता प्राप्त की, से की जाती है। किन्तु, *अर्थशास्त्र* जहां प्रिंस की तरह ही क्रूरता, कुटिलता, चलाकी आदि को राष्ट्र और सामान्य जन के हितार्थ किए गए सामुहिक कार्य के लिए आवश्यक मानता है, वहीं यह प्रिंस से एक कदम और आगे दिखता है। *अर्थशास्त्र*जासूसी को एक मजबूत और व्यापक संस्था के रूप में स्थापित करने पर जोर देता है, जिसे यह आन्तरिक शान्ति, कानून व व्यवस्था तथा युद्ध और विदेश नीति के लिए अपरिहार्य मानता है। प्रिंस इस विषय में कुछ नहीं कहता।
ऐतिहासिक उपन्यास का लेखन एक दुरूह कार्य है क्योंकि इतिहास की सीमाओं में रहकर ही अपनी कल्पनाओं को उड़ान देना पड़ता है, इतिहास के तथ्यों से छेड़छाड़ भी न हो और कहानी को इतिहास की नीरसता से बचाकर रोचकता और कोमलता प्रदान की जाए। इतिहासकार तो घटनाओं तथा युद्ध की हार-जीत के चकाचौंध से प्रभावित रहता है, जबकि उपन्यासकार उससे आगे बढ़कर देश, समाज और व्यक्ति के जीवन के भीतर तक झांकता है।
यह सब आपको इस उपन्यास में स्पष्ट दिखेगा।
वैसे तो इस उपन्यास का चित्रफलक एक खास कालखण्ड और एक खास विषय-वस्तु है, किन्तु, कहानी में घटनाओं के साथ उस समय की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं अपराधिक परिस्थितियों का एक विस्तृत वर्णन है, जिससे उपन्यास का चित्रफलक काफी विस्तृत और समग्र हो जाता है।
कहानी का मूल विषय-वस्तु तो चाणक्य की जासूसी दुनिया है। यूं तो जासूसी मानव समाज में उसकी सभ्यता के उदय से ही विद्यमान है, किन्तु, चाणक्य ने इसे राजनीति तथा सैन्य रणनीति में उच्चतम शिखर पर ला दिया। जासूसी के समस्त विधाओं और पहलुओं को इतनी कलात्मक ढंग से इस कहानी में पिरोया गया है कि पाठक को पता ही नहीं चलता है कि वह कब राजनीति के प्रसस्त मार्गों से गुजरता हुआ गूह्य , गूढ़ और रोमांचक जासूसी की गलियों में आ धमकता है तथा अत्यन्त सरलता से उनके जीवन्त रूप से परिचित होता चला जाता है। जासूसी के तमाम पुरातन और अद्यतन कलाओं व तकनीकियों से परिचय मिलता है। कहानियां तथ्यों से भटकती भी नहीं हैं। इस तरह से यह उपन्यास काफी शोधपरक है एवं विषय वस्तु पर लेखक की निपुणता और अच्छी पकड़ का द्योतक है।
जासूसी की महत्ता और सफलता अपने चरम सीमा पर पहुंच जाती है जब चाणक्य ने अपने जासूसों के बल पर बिना किसी युद्ध के धननंद के विशाल साम्राज्य का रक्तहीन सत्ता पलट कर देता है। जासूसों ने मनोवैज्ञानिक ढंग से और उसके अन्त:पुर में घुसकर उसके ऊपर ऐसा मानसिक दबाव बनाया कि वह खुद ही राज भवन से पलायन के दरम्यान मर गया। जासूसी का क्रूररूप देखने को तब मिलता है, जब चन्द्रगुप्त को विषकन्या के द्वारा मारने का षड्यंत्र हुआ तो कुटिल चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को बचाने के लिए राजा पुरु, जो उनके लिए मित्रराष्ट्र के रुप में अपनी सेना लेकर लड़ने आया था, का बलिदान कर दिया।
कंचन और कामिनी तथा सुरा और सुन्दरी का प्रयोग जासूसी में होता आया है और चाणक्य ने भी खूब किया। चन्द्रगुप्त के शत्रुओं एवं प्रतिद्वंन्दिओं के नास करने के बाद चाणक्य सम्राज्य को निष्कंटक बनाने में लगे रहे, क्योंकि उन्हें पता था कि शत्रु पर विजय पा लेना ही प्रर्याप्त नहीं था, राज को निष्कंटक बनाये बिना सम्राज्य को शक्तिशाली एवं स्थाई नहीं बनाया जा सकता। फिर जासूसी-कला से चन्द्रगुप्त के दोनों प्रमुख दुश्मन, धननंद के महामात्य कात्यायन तथा राजा पुरु के पुत्र मलयकेतु, का हृदय परिवर्तनकर उन्हें राष्ट्र निर्माण में लगा दिया। यह चाणक्य के साम, दाम, दण्ड, भेद की नीति का उदाहरण है
लेखक की पकड़ समान रूप से हिन्दी, संस्कृत एवं आंग्ल भाषाओं पर है। साथ ही ये भारत सरकार के जासूसी विभाग में एक उच्च पद पर कार्यरत थे, जिससे विषय वस्तु के निष्पादन में पूरी तथ्यात्मकता रही है ।
यह कृति कई अर्थों में महत्त्वपूर्ण और अनोखी है। अत्यन्त ही पठनीय उपन्यास।